"अयोग्यः पुख्खः नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः," "अर्थात कोई भी व्यक्ति अयोग्य नहीं होता, किन्तु उसको सही कार्य में लगने वाला ही कठिनता से मिलता है।"


। यद्यपि भारतीय संस्कृति सनातन संस्कृति है। जिसने संपूर्ण विश्व को मानवता का संदेश दिया है। तथापि हमारे समाज में ऊँच-नीच भेदभाव की भावना जड़ों तक व्याप्त है। क्षेत्र चाहे धार्मिक हो या सामाजिक राजनैतिक हो या फिर युद्ध का मैदान। जातिगत ऊँच-नीच का हमारा इतिहास बहुत पुराना और प्रसिद्ध रहा है। शायद यही कारण था कि हम मुट्ठी भर अंग्रेजों समेत सभी विदेशी आक्रांताओं का मुकाबला भी इसीलिए नहीं कर पाये क्योंकि हमारे अंदर जातिगत विभाजन की दरारें बहुत गहरी थी और हमारे लिए एक होकर लड़ना कठिन था क्योंकि हम स्वयं एक दूसरे के शत्रु थे, इसीलिए कमजोर से कमजोर शत्रु भी हमसे जीत गया फिर जातिगत ही नहीं, उपजातिगत ऊंच-नीच भी कई तरह से हानि रही। जैसे कि आर्थिक विभाजन और पद प्रतिष्ठा विभाजन। भारतीय जवानों के साथ जो दोयम दर्जे का व्यवहार है वह उनके अपनों ही द्वारा ऊँचे और निम्न पदों की वरीयता की ही देन है लेकिन यहां शायद हम भूल जाते हैं कि जो जवान भारत माता के लिए अपना सर्वस्व सर्मपण कर देश की सेवा कर रहे हैं। उनका सम्मान और स्वास्थ्य तथा संपूर्ण पोषण भी शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी है, ये ठीक है कि नौकरशाही एक जाति समूह के लोग, दूसरी जाति समूह के लोगों से सहज संपर्क रखना पसंद नहीं करते या उतना ही संपर्क रखते हैं। जितना कि कामकाजी जरूरतों के लिए आवश्यक होता है। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं होना चाहिये कि असमानता की खाई इतनी गहरी हो जाये कि देशधर्म की सीमायें भी उसे पार न सके। देखा तो यहां तक जाता है कि अगर नौकरशाही का जातिगत विभाजन किसी कारण से गड़बड़ा जाता है तो श्रेष्ठ जाति के लोग निम्न जाति के लोगों के प्रति उसी तरह से हमलावर और हिंसक हो जाते हैं जिस तरह की बात हम जातिगत विभाजनों में अक्सर देखते हैं। नौकरशाही के जाति विभाजन में हम पाते हैं कि यह केवल पदों तक सीमित न रहकर खान-पान, रहन-सहन तथा तबादलों तक में भारी भेदभाव पाया जाता है। कई बार विभाजन की जडे इतनी असामान्य व दुःखद हो जाती है कि शोषित व्यक्ति को आत्महत्या तक करनी पड़ जाती है। नौकरशाही में जातिगत विभाजन का दंश इतना गहरा देखने को मिलता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी इस कुव्यवस्था की शिकार होती रहती है। इस तरह इस समाज में हम अक्सर अपनी तमाम भौतिक इस तरह इस समाज में हम अक्सर अपनी तमाम भौतिक उपलब्धियों का भोग दूसरों को नीचा दिखाकर भी किया करते हैं और लगातार शेष समाज को बताते हुए रहते हैं कि हम कहां तक आगे बढ़ चुके हैं आज्ञैर कितनी दूरियाँ अभी हैं जो हमें पार करनी है। दिलचस्प तो यह कि हमें आजादी मिले 70 बरस होने को हैं तब भी ऊँच नीच के विभाजन घटने की बजाये बढ़ रहे हैं। बल्कि जितना ऊँचा समाज इतना ही गहरा विभाजन। कहना गलत न होगा कि आज हमारी दकियानूसी विचार और विचारों के कारण होने वाले असामान्य घटक, जटिल और जटिलतम होते जा रहे हैं। बल्कि और भी कई तरीके के नये-नये विभाजन तैयार हो गये हैं। परिणामतः समाज में कई तरह के अनावश्यक तनाव पैदा हो गये हैं। तो व्यक्तिगत संबंधों में भी तरह-तरह के विकृत रूपों में व्यक्त होते हैं। इससे तो यही स्पष्ट होता है कि हम आजादी के इतने बरसों बाद उन्नति के क्रमिक विकास के साथ-साथ विभाजन की कमी न पटने वाली गहरी खाई की तरफ बढ़ रहे हैं जहां एक दिन पतन अवश्यम्भावी है।